Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-15 With Narration Lyric in Hindi

Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-15
Bhagavad Gita Quotes In HindiShrimad Bhagawad Geeta Details
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“कर्म ज्ञान से अज्ञात मानव, कोई महामानव नहीं केवल अज्ञानी है।”

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श्रीमद्भगवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मानव को कर्म करना सिखाता है, जो मनुष्य को धर्म की सही परिभाषा समझाता है। यह एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है, जो आपको मोक्ष मार्ग तक ले जाता है। यूँ तो भगवत गीता सनातन हिन्दू वैदिक धरम का आधार है, परंतु आज मानव कल्याण के लिए इस पवित्र ग्रंथ के ज्ञान को दिल खोल कर अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि यही सनातन है, और यही शाश्वत है।
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श्रीमदभगवदगीता पञ्चदश अध्याय सभी श्लोक हिंदी लिरिक्स

श्री भगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रीभगवान् बोले —
ऊपरकी ओर मूलवाले
तथा नीचेकी ओर शाखावाले
जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्षको अव्यय कहते हैं
और वेद जिसके पत्ते हैं?
उस संसारवृक्षको जो जानता है?
वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला है।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
उस संसारवृक्षकी गुणों
(सत्त्व? रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई
तथा विषयरूप कोंपलोंवाली शाखाएँ नीचे?
मध्यमें और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं।
मनुष्यलोकमें कर्मोंके अनुसार बाँधनेवाले
मूल भी नीचे और ऊपर
(सभी लोकोंमें) व्याप्त हो रहे हैं।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
इस संसारवृक्षका
जैसा रूप देखनेमें आता है?
वैसा यहाँ (विचार करनेपर) मिलता नहीं
क्योंकि इसका न तो आदि है?
न अन्त है और न स्थिति ही है।
सलिये इस दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप
अश्वत्थवृक्षको दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्रके द्वारा काटकर —

ततः पदं तत्परिमार्गितव्य
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
उसके बाद उस
परमपद(परमात्मा) की खोज करनी चाहिये
जिसको प्राप्त होनेपर
मनुष्य फिर लौटकर संसारमें नहीं आते
और जिससे अनादिकालसे चली आनेवाली
यह सृष्टि विस्तारको प्राप्त हुई है?
उस आदिपुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ।

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मान और मोहसे रहित हो गये हैं? जिन्होंने आसक्तिसे होनेवाले दोषोंको जीत लिया है? जो नित्यनिरन्तर परमात्मामें ही लगे हुए हैं? जो (अपनी दृष्टिसे) सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित हो गये हैं? जो सुखदुःखरूप द्वन्द्वोंसे मुक्त हो गये हैं? ऐसे (ऊँची स्थितिवाले) मोहरहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद(परमात्मा) को प्राप्त होते हैं।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
उस(परमपद)
को न सूर्य?
न चन्द्र और
न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है
और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर
(संसारमें) नहीं आते? वही मेरा परमधाम है।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
इस संसारमें
जीव बना हुआ आत्मा
मेरा ही सनातन अंश है
परन्तु वह प्रकृतिमें स्थित मन
और पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है
(अपना मान लेता है)।

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जैसे वायु
गन्धके स्थानसे गन्धको ग्रहण करके ले जाती है?
ऐसे ही शरीरादिका स्वामी बना हुआ
जीवात्मा भी जिस शरीरको छोड़ता है?
वहाँसे मनसहित इन्द्रियोंको ग्रहण करके
फिर जिस शरीरको प्राप्त होता है?
उसमें चला जाता है।

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
यह जीवात्मा
मनका आश्रय लेकर
श्रोत्र? नेत्र? त्वचा? रसना
और घ्राण — इन पाँचों इन्द्रियोंके द्वारा
विषयोंका सेवन करता है।

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
शरीरको छोड़कर जाते हुए
या दूसरे शरीरमें स्थित हुए
अथवा विषयोंको भोगते हुए
भी गुणोंसे युक्त जीवात्माके स्वरूपको मूढ़ मनुष्य नहीं जानते?
ज्ञानरूपी नेत्रोंवाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं।

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
यत्न करनेवाले
योगीलोग अपनेआपमें स्थित
इस परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।
परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है?
ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करनेपर
भी इस तत्त्वका अनुभव नहीं करते।

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
सूर्यमें आया हुआ
जो तेज सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है
और जो तेज चन्द्रमामें है
तथा जो तेज अग्निमें है?
उस तेजको मेरा ही जान।

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मैं ही
पृथ्वीमें प्रविष्ट होकर
अपनी शक्तिसे समस्त प्राणियोंको धारण करता हूँ
और मैं ही रसमय चन्द्रमाके
रूपमें समस्त ओषधियों
(वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूँ।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
प्राणियोंके शरीरमें रहनेवाला
मैं प्राणअपानसे युक्त वैश्वानर होकर
चार प्रकारके अन्नको पचाता हूँ।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मैं सम्पूर्ण
प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ।
मेरेसे ही स्मृति? ज्ञान
और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश) होता है।
सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ।
वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला
और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
इस संसारमें क्षर (नाशवान्)
और अक्षर (अविनाशी) —
ये दो प्रकारके पुरुष हैं।
सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान्
और कूटस्थ (जीवात्मा)
अविनाशी कहा जाता है।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
उत्तम पुरुष तो अन्य ही है?
जो परमात्मा नामसे कहा गया है।
वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकोंमें प्रविष्ट होकर
सबका भरणपोषण करता है।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मैं क्षरसे अतीत हूँ
और अक्षरसे भी उत्तम हूँ?
इसलिये लोकमें और वेदमें
पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ।

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भरतवंशी अर्जुन
इस प्रकार जो मोहरहित
मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है?
वह सर्वज्ञ सब प्रकारसे
मेरा ही भजन करता है।

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे निष्पाप
अर्जुन इस प्रकार
यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र
मेरे द्वारा कहा गया है।
हे भरतवंशी अर्जुन इसको जानकर
मनुष्य ज्ञानवान् (तथा प्राप्तप्राप्तव्य)
और कृतकृत्य हो जाता है।

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