Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-3 With Narration Lyric in Hindi

Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-3
Bhagavad Gita Quotes In HindiShrimad Bhagawad Geeta Details
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“मन अंधा होता है, इसके पास कोई ज्ञान नहीं होता 
मन कुछ नहीं जानता ना सही और ना ही गलत 
और ना ही सही मार्ग दर्शन करता है इसलिए आप अंधे मन 
कि बाते मानकर जरूरी कामों को टालना बंद करे 
आप हमेशा अपनी बुद्धि से काम लीजिए मन से नहीं 
क्योंकि अंधा मन हमेशा आपको जरूरी कामों को करने से रोक देता है । ”

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श्रीमद्भगवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मानव को कर्म करना सिखाता है, जो मनुष्य को धर्म की सही परिभाषा समझाता है। यह एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है, जो आपको मोक्ष मार्ग तक ले जाता है। यूँ तो भगवत गीता सनातन हिन्दू वैदिक धरम का आधार है, परंतु आज मानव कल्याण के लिए इस पवित्र ग्रंथ के ज्ञान को दिल खोल कर अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि यही सनातन है, और यही शाश्वत है।
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श्रीमदभगवदगीता तृतीय अध्याय सभी श्लोक हिंदी लिरिक्स

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।3.1।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.1 3.2।। अर्जुन बोले हे जनार्दन अगर आप
कर्म से बुद्धि(ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर
हे केशव मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं आप
अपने मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मोहित
सी कर रहे हैं । अतः आप निश्चय करके एक
बात कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्िचत्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।।3.2।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.1 3.2।। अर्जुन बोले हे जनार्दन अगर आप
कर्म से बुद्धि(ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर हे
केशव मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं आप अपने
मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मोहित सी कर
रहे हैं । अतः आप निश्चय करके एक बात कहिये
जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।

श्री भगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।3.3।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.3।। श्रीभगवान् बोले हे निष्पाप अर्जुन इस
मनुष्य लोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा
मेरे द्वारा पहले कही गयी है । उनमें ज्ञानियों
की निष्ठा ज्ञान योग से और योगियों की
निष्ठा कर्मयोगसे होती है ।

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।3.4।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.4।। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना
निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्याग
मात्र से सिद्धि को ही प्राप्त होता है ।

न हि कश्िचत्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।।3.5।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.5।। कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण
मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता क्योंकि
(प्रकृति के) परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृति
जन्य गुण कर्म कराते हैं ।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।3.6।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.6।। जो कर्मेन्द्रियों(सम्पूर्ण इन्द्रियों) को हठ
पूर्वक रोक कर मन से इन्द्रियों के विषयों का
चिन्तन करता रहता है वह मूढ़ बुद्धि वाला
मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला)
कहा जाता है ।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।3.7।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.7।। हे अर्जुन जो मनुष्य मन से इन्द्रियों
पर नियन्त्रण करके आसक्ति रहित होकर
(निष्काम भाव से) समस्त इन्द्रियों के
द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है ।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ।।3.8।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.8।। तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए
कर्तव्य कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की
अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने
से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा ।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।।3.9।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.9।। यज्ञ (कर्तव्यपालन) के लिये किये जाने वाले
कर्मों से अन्यत्र (अपने लिये किये जानेवाले) कर्मों में
लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है इसलिये
हे कुन्ती नन्दन तू आसक्ति रहित होकर उस यज्ञ के लिये
ही कर्तव्य कर्म कर ।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ।।3.10।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.10 3.11।। प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदि काल में
कर्तव्यकर्मों के विधान सहित प्रजा(मनुष्य आदि) की रचना
करके उनसे (प्रधानतया मनुष्यों से) कहा कि तुम लोग इस
कर्तव्य के द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्य कर्म रूप
यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री प्रदान
करने वाला हो । अपने कर्तव्य कर्म के द्वारा तुम लोग देवताओं
को उन्नत करो और वे देवता लोग अपने कर्तव्य के द्वारा तुम
लोगों को उन्नत करें । इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते
हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।3.11।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.10 3.11।। प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदिकाल में
कर्तव्य कर्मों के विधान सहित प्रजा(मनुष्य आदि) की रचना
करके उनसे (प्रधानतया मनुष्यों से) कहा कि तुम लोग इस
कर्तव्य के द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्य कर्म रूप
यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री प्रदान
करने वाला हो । अपने कर्तव्य कर्म के द्वारा तुम लोग देवताओं
को उन्नत करो और वे देवता लोग अपने कर्तव्य के द्वारा तुम
लोगों को उन्नत करें । इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते
हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ।।3.12।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.12।। यज्ञ से भावित (पुष्ट) हुए देवता भी तुम
लोगों को (बिना माँगे ही) कर्तव्य पालन की आवश्यक
सामग्री देते रहेंगे । इस प्रकार उन देवताओं से प्राप्त हुई
सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य
स्वयं ही उसका उपभोग करता है वह चोर ही है ।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।3.13।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.13।। यज्ञ शेष(योग) का अनुभव करने वाले
श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं । परन्तु
जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते
हैं वे पापी लोग तो पाप का ही भक्षण करते हैं ।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।।3.14।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.14 3.15।। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं ।
अन्न वर्षा से होता है । वर्षा यज्ञ से होती है । यज्ञ कर्मों
से निष्पन्न होता है । कर्मों को तू वेद से उत्पन्न जान
और वेद को अक्षर ब्रह्म से प्रकट हुआ जान । इसलिये
वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है ।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।3.15।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.14 3.15।। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं ।
अन्न वर्षा से होता है । वर्षा यज्ञ से होती है । यज्ञ कर्मों
से निष्पन्न होता है । कर्मों को तू वेद से उत्पन्न जान
और वेद को अक्षर ब्रह्म से प्रकट हुआ जान । इसलिये
वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है ।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।3.16।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.16।। हे पार्थ जो मनुष्य इस लोक में इस
प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुसार
नहीं चलता वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण
करने वाला अघायु (पापमय जीवन बिताने वाला)
मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है ।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।3.17।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.17।। जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने
वाला और अपने आप में ही तृप्त तथा अपने आप
में ही संतुष्ट है उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्िचदर्थव्यपाश्रयः ।।3.18।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.18।। उस (कर्म योग से सिद्ध हुए) महापुरुष का
इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता
है और न कर्म न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है
तथा सम्पूर्ण प्राणियों में (किसी भी प्राणीके साथ)
इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता ।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।।3.19।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.19।। इसलिये तू निरन्तर आसक्ति रहित होकर
कर्तव्य कर्म का भली भाँति आचरण कर क्योंकि
आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य
परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।।3.20।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.20।। राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म
के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं । इसलिये
लोक संग्रह को देखते हुए भी तू (निष्काम भाव से)
कर्म करनेके योग्य है ।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।3.21।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.21।। श्रेष्ठ मनुष्य जो जो आचरण करता है
दूसरे मनुष्य वैसा वैसा ही आचरण करते हैं ।
वह जो कुछ प्रमाण देता है दूसरे मनुष्य उसी
के अनुसार आचरण करते हैं ।

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।3.22।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.22।। हे पार्थ मुझे तीनों लोकों में न तो
कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करने योग्य
वस्तु अप्राप्त है फिर भी मैं कर्तव्य कर्म में
ही लगा रहता हूँ ।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।3.23।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.23 3.24।। हे पार्थ अगर मैं किसी समय सावधान होकर
कर्तव्य कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय क्योंकि) मनुष्य
सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं । यदि मैं
कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता
को करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ।।3.24।।


॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.23 3.24।। हे पार्थ अगर मैं किसी समय सावधान
होकर कर्तव्य कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय क्योंकि)
मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।
यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जायँ
और मैं संकरता को करने वाला तथा इस समस्त प्रजा
को नष्ट करनेवाला बनूँ ।

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्िचकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।3.25।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.25 3.26।। हे भरत वंशोद्भव अर्जुन कर्म में आसक्त
हुए अज्ञानी जन जिस प्रकार कर्म करते हैं आसक्ति रहित
विद्वान् भी लोक संग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म
करे । तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानी
मनुष्यों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे प्रत्युत स्वयं
समस्त कर्मों को अच्छी तरह से करता हुआ उनसे भी
वैसे ही करवाये ।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ।।3.26।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.25 3.26।। हे भरत वंशोद्भव अर्जुन कर्म में आसक्त
हुए अज्ञानी जन जिस प्रकार कर्म करते हैं आसक्ति रहित
विद्वान् भी लोक संग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म
करे । तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानी मनुष्यों
की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मों

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते ।।3.27।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.27।। सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के
गुणों द्वारा किये जाते हैं परन्तु अहंकार से मोहित
अन्तःकरण वाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ ऐसा
मानता है ।

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।3.28।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.28।। हे महाबाहो गुण विभाग और कर्म
विभाग को तत्त्व से जानने वाला महा पुरुष
सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं ऐसा
मान कर उनमें आसक्त नहीं होता ।

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।।3.29।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.29।। प्रकृति जन्य गुणों से अत्यन्त मोहित
हुए अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मों में आसक्त
रहते हैं । उन पूर्णतया न समझने वाले मन्द
बुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला
ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे ।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।3.30।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.30।। तू विवेकवती बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण
कर्तव्य कर्मों को मेरे अर्पण करके कामना
ममता और संताप रहित होकर युद्ध रूप
कर्तव्य कर्म को कर ।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ।।3.31।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.31।। जो मनुष्य दोष दृष्टि से रहित होकर
श्रद्धा पूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मत का
सदा अनुसरण करते हैं वे भी सम्पूर्ण कर्मों के
बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।।3.32।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.32।। परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मत में
दोष दृष्टि करते हुए इसका अनुष्ठान नहीं करते
उन सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और अविवे की
मनुष्यों को नष्ट हुए ही समझो ।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।3.34।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.34।। इन्द्रिय इन्द्रिय के अर्थ में (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषय में)
मनुष्य के राग और द्वेष व्यवस्था से (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर)
स्थित हैं । मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये क्योंकि वे
दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्ग मे विघ्न डालने वाले) शत्रु हैं ।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।3.35।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.35।। अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे
के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है ।
अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और
दूसरे का धर्म भय को देने वाला है ।

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ।।3.36।।


॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.36।। अर्जुन बोले हे वार्ष्णेय् फिर यह मनुष्य
न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुए की तरह
किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है ।

श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ।।3.37।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.37।। श्रीभगवान् बोले रजो गुण से उत्पन्न हुआ
यह काम ही क्रोध है । यह बहुत खाने वाला और महा
पापी है । इस विषय में तू इसको ही वैरी जान ।

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।।3.38।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.38।। जैसे धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण
ढक जाता है तथा जैसे जेर से गर्भ ढका रहता है
ऐसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान (विवेक) ढका हुआ है ।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.39।। और हे कुन्ती नन्दन इस अग्नि के
समान कभी तृप्त न होने वाले और विवेकियों
के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का
विवेक ढका हुआ है ।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ।।3.40।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.40।। इन्द्रियाँ मन और बुद्धि इस काम के वास स्थान कहे गये हैं ।
यह काम इन(इन्द्रियाँ मन और बुद्धि) के द्वारा ज्ञान को ढककर देहा भिमानी
मनुष्य को मोहित करता है ।

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।3.41।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.41।। इसलिये हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन तू
सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और
विज्ञान का नाश करने वाले महान् पापी काम को अवश्य
ही बलपूर्वक मार डाल ।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।3.42।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.42 3.43।। इन्द्रियों को (स्थूलशरीरसे) पर
(श्रेष्ठ सबल प्रकाशक व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं ।
इन्द्रियों से पर मन है मन से भी पर बुद्धि है औऱ जो
बुद्धि से भी पर है वह (काम) है । इस तरह बुद्धि से
पर(काम) को जानकर अपने द्वारा अपने आपको वश
में करके हे महाबाहो तू इस काम रूप दुर्जय शत्रु को मार डाल ।

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।।3.43।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।3.42 3.43।। इन्द्रियों को (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ सबल
प्रकाशक व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं । इन्द्रियों से पर मन
है मन से भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम)
है । इस तरह बुद्धि से पर(काम) को जानकर अपने द्वारा अपने
आपको वश में करके हे महाबाहो तू इस काम रूप दुर्जय शत्रुको मार डाल ।

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