Bhagavad Gita Quotes In Hindi | Shrimad Bhagawad Geeta Details |
★★★★★★★★★★★★★★★★★★ “सफलता उसी व्यक्ति को मिलती हैं, जिसका स्वयं की इन्द्रियों पर बस हो।” ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ | ★★★★★★★★★★★★★★★★★★ श्रीमद्भगवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मानव को कर्म करना सिखाता है, जो मनुष्य को धर्म की सही परिभाषा समझाता है। यह एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है, जो आपको मोक्ष मार्ग तक ले जाता है। यूँ तो भगवत गीता सनातन हिन्दू वैदिक धरम का आधार है, परंतु आज मानव कल्याण के लिए इस पवित्र ग्रंथ के ज्ञान को दिल खोल कर अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि यही सनातन है, और यही शाश्वत है। ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ |
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श्रीमदभगवदगीता अष्टम अध्याय सभी श्लोक हिंदी लिरिक्स
अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अर्जुन बोले — हे पुरुषोत्तम वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है कर्म क्या है अधिभूत किसको कहा गया है और अधिदैव किसको कहा जाता है यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस देहमें कैसे है हे मधूसूदन नियतात्मा मनुष्यके द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अर्जुन बोले — हे पुरुषोत्तम वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है कर्म क्या है अधिभूत किसको कहा गया है और अधिदैव किसको कहा जाता है यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस देहमें कैसे है हे मधूसूदन नियतात्मा मनुष्यके द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं
श्री भगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः
॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रीभगवान् बोले —
परम अक्षर ब्रह्म है
और जीवका अपना जो होनापन है
उसको अध्यात्म कहते हैं।
प्राणियोंका उद्भव करनेवाला जो त्याग है उसकी कर्म संज्ञा है।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन क्षरभाव
अर्थात् नाशवान् पदार्थको अधिभूत कहते हैं
पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी अधिदैव हैं
और इस देहमें अन्तर्यामीरूपसे मैं ही अधियज्ञ हूँ।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है
वह मेरेको ही प्राप्त होता है
इसमें सन्देह नहीं है।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन मनुष्य अन्तकालमें जिसजिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है
वह उस (अन्तकालके) भावसे सदा भावित होता हुआ उसउसको ही प्राप्त होता है
अर्थात् उसउस योनिमें ही चला जाता है।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
इसलिये तू सब समयमें मेरा स्मरण कर
और युद्ध भी कर। मेरेमें मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला
तू निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन अभ्यासयोगसे युक्त
और अन्यका चिन्तन न करनेवाले
चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ
(शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है।
कविं पुराणमनुशासितार
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो सर्वज्ञ पुराण शासन करनेवाला
सूक्ष्मसेसूक्ष्म सबका धारणपोषण करनेवाला
अज्ञानसे अत्यन्त परे सूर्यकी तरह प्रकाशस्वरूप
— ऐसे अचिन्त्य स्वरूपका चिन्तन करता है।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
वह भक्तियुक्त
मनुष्य अन्तसमयमें अचल मनसे
और योगबलके द्वारा भृकुटीके मध्यमें प्राणोंको अच्छी तरहसे प्रविष्ट करके
(शरीर छोड़नेपर) उस परम दिव्य पुरुषको प्राप्त होता है।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं
वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं
और साधक जिसकी प्राप्तिकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं
वह पद मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
(इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके
और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके
योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो ँ़
इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है
वह परमगतिको प्राप्त होता है।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
(इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके
और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके
योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो ँ़
इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है
वह परमगतिको प्राप्त होता है।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्यनिरन्तर स्मरण करता है
उस नित्ययुक्त योगीके लिये
मैं सुलभ हूँअर्थात्
उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
महात्मालोग मुझे प्राप्त करके
दुःखालय और अशाश्वत पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होते
क्योंकि वे परमसिद्धिको प्राप्त हो गये हैं
अर्थात् उनको परम प्रेमकी प्राप्ति हो गयी है।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे अर्जुन
ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्ती हैं
परन्तु हे कौन्तेय मुझे प्राप्त
होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मनुष्य
ब्रह्माके सहस्र चतुर्युगीपर्यन्त
एक दिनको और सहस्र चतुर्युगीपर्यन्त एक रातको जानते हैं
वे मनुष्य ब्रह्माके दिन और रातको जाननेवाले हैं।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
ब्रह्माजीके दिनके आरम्भकालमें
अव्यक्त(ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीर) से सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं
और ब्रह्माजीकी रातके आरम्भकालमें
उसी अव्यक्तमें सम्पूर्ण प्राणी लीन हो जाते हैं।
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न होहोकर
प्रकृतिके परवश हुआ ब्रह्माके दिनके समय उत्पन्न होता है
और ब्रह्माकी रात्रिके समय लीन होता है।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
परन्तु उस अव्यक्त
(ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीर) से अन्य अनादि सर्वश्रेष्ठ भावरूप जो अव्यक्त है
उसका सम्पूर्ण प्राणियोंके
नष्ट होनेपर भी नाश नहीं होता।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
उसीको अव्यक्त और अक्षर कहा गया है
और उसीको परमगति कहा गया है
तथा जिसको प्राप्त होनेपर
फिर लौटकर नहीं आते वह मेरा परमधाम है।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन
अर्जुन सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं
और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है
वह परम पुरुष परमात्मा अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन जिस काल
अर्थात् मार्गमें शरीर छोड़कर गये हुए योगी अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं
अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते
और (जिस मार्गमें गये हुए) आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर आते हैं
उस कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको मैं कहूँगा।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिस मार्गमें प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता दिनका अधिपति देवता शुक्लपक्षका अधिपति देवता
और छः महीनोंवाले उत्तरायणका अधिपति देवता है
शरीर छोड़कर उस मार्गसे गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष
(पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माजीके साथ) ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिस मार्गमें धूमका अधिपति देवता रात्रिका अधिपति देवता कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छः महीनोंवाले दक्षिणायनका अधिपति देवता है शरीर छोड़कर उस मार्गसे गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्ममरणको प्राप्त होता है।
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽऽवर्तते पुनः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
क्योंकि शुक्ल और कृष्ण — ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत्(प्राणिमात्र) के साथ सम्बन्ध रखनेवाली हैं।
इनमेंसे एक गतिमें जानेवालेको लौटना नहीं पड़ता
और दूसरी गतिमें जाननेवालेको लौटना पड़ता है।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन इन दोनों मार्गोंको जाननेवाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता।
अतः हे अर्जुन तू सब समयमें योगयुक्त हो जा।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
योगी इसको (शुक्ल और कृष्णमार्गके रहस्यको)
जानकर वेदोंमें यज्ञोंमें तपोंमें तथा दानमें जोजो पुण्यफल कहे गये हैं
उन सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है और आदिस्थान परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
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